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बापू की चप्पल

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जब हमलोग फर्स्ट ईयर में थे, तब इंदौर में या यूं कहें कि पूरे मालवा रीजन में ग्वालियर, जबलपुर, रायपुर, भोपाल के मुक़ाबले गर्मी काफी कम होती थी। मई/जून के महीने में, रात को हॉस्टल की छत पर हम लोग सोने जाते थे तो साथ में कम्बल ले कर जाना पड़ता था। ये बात हम मालवा रीजन के बाहर से आये लोगों के लिए एक अचम्भा ही था। रात को खाना-वाना निपटने के बाद छत पर जा कर हमलोग अपनी-अपनी दरी/गद्दा बिछा लेते थे। गर्मी के दिनों में छत पे सोने का अपना मज़ा था। चाँदनी रात और हल्की सी ठंड अलग ही आनंद देती थी। कुछ लड़के ऐसे भी थे जो खाली हाथ छत पर आते थे और कलेप्टो-पेरासाइट्स की तरह किसी दूसरे के गद्दे पर डल जाते थे।  हमारे हॉस्टल के ग्राउण्ड फ्लोर पर एक बब्बा रहते थे। बब्बा लोग, यानी सुपर सीनियर्स जो एग्जाम, सबमिशन और डिग्री के मटेरियलिस्टिक बंधनों से मुक्त हो कर कई सालों से हॉस्टल में निःस्वार्थ भाव से मोक्ष मार्ग पर साधनारत थे। कई बार इन्होंने गार्जियन की तरह हमें रैगिंग से भी बचाया था। ये भी छत पर सोने आते थे। इन्होंने छत पर अपनी सोने की लोकेशन के कॉर्डिनेट फिक्स कर रखे थे और कोई उस जगह पर अपना गद्दा/दरी बिछाने