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ताकाझांकी

कॉलेज का हॉस्टल यदि शहर के बीचोंबीच हो तो हॉस्टल की छतों से और कमरों की खिड़कियों से ताकने झाँकने के लिए आसपास काफ़ी कुछ रहता है। फ़ील्डिंग और जगलिंग हॉस्टल के पीछे की कॉलोनी में दो लड़कियां रोली और हेमा रहती थी।  उनके घर हॉस्टल की बाउन्ड्री वॉल से सटकर एक ही लाइन में कुछ मकान छोड़ कर थे। दोनों अच्छी सहेलियां थी और शायद गुजराती कॉलेज में पढती थी। वो मिलकर डबल्स टीम टाइप्स या तो रोली के घर से या हेमा के घर से स्ट्रेटेजिक पोजिशन बना कर मोर्चा सम्हालती थी। कभी-कभी वो अपने-अपने घरों से ही सिंगल्स टूर्नामेंट भी खेलती थी। कई लड़के हॉस्टल की छत से या सेकेंड फ्लोर की खिड़कियों से उनकी फील्डिंग करते थे। जैसे फ्लाइट टेकऑफ़ के जस्ट पहले सेफ्टी इंस्ट्रक्शन देती एयर हॉस्टेस को देख कर हर मेल पैसेंजर को ये लगता है कि एयर हॉस्टेस एक्सक्लुसिवली उसी की ओर देख रही है, उसी तरह इन सभी फील्डरों को यह विश्वास होता था कि वो दोनों केवल और केवल उन्हीं की ओर देख रही है। लड़कों के इस मुग़ालते को बनाए रखने के लिए कब किसकी ओर देखना है, किसे इग्नोर करना हैं, किसे इशारों से उलझा के रखना है, किसको आंख दिखाना है, किसे कनखियों

बापू की चप्पल

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जब हमलोग फर्स्ट ईयर में थे, तब इंदौर में या यूं कहें कि पूरे मालवा रीजन में ग्वालियर, जबलपुर, रायपुर, भोपाल के मुक़ाबले गर्मी काफी कम होती थी। मई/जून के महीने में, रात को हॉस्टल की छत पर हम लोग सोने जाते थे तो साथ में कम्बल ले कर जाना पड़ता था। ये बात हम मालवा रीजन के बाहर से आये लोगों के लिए एक अचम्भा ही था। रात को खाना-वाना निपटने के बाद छत पर जा कर हमलोग अपनी-अपनी दरी/गद्दा बिछा लेते थे। गर्मी के दिनों में छत पे सोने का अपना मज़ा था। चाँदनी रात और हल्की सी ठंड अलग ही आनंद देती थी। कुछ लड़के ऐसे भी थे जो खाली हाथ छत पर आते थे और कलेप्टो-पेरासाइट्स की तरह किसी दूसरे के गद्दे पर डल जाते थे।  हमारे हॉस्टल के ग्राउण्ड फ्लोर पर एक बब्बा रहते थे। बब्बा लोग, यानी सुपर सीनियर्स जो एग्जाम, सबमिशन और डिग्री के मटेरियलिस्टिक बंधनों से मुक्त हो कर कई सालों से हॉस्टल में निःस्वार्थ भाव से मोक्ष मार्ग पर साधनारत थे। कई बार इन्होंने गार्जियन की तरह हमें रैगिंग से भी बचाया था। ये भी छत पर सोने आते थे। इन्होंने छत पर अपनी सोने की लोकेशन के कॉर्डिनेट फिक्स कर रखे थे और कोई उस जगह पर अपना गद्दा/दरी बिछाने

बापट पुराण

1993 ..शायद अगस्त का महीना होगा .. बरसात का सीज़न शुरू हो चुका था। GSITS में अपना बैच अब 2nd ईयर में आ गया था ..यानि 3rd सेमेस्टर!! ...हम सभी 4 नम्बर हॉस्टल से 3 नम्बर हॉस्टल शिफ्ट हो चुके थे। उस समय तक हॉस्टल बिल्डिंग्स के नाम नही थे, केवल 1 से 4 तक नम्बर ही नाम थे। शायद जीएसआयटीएस के इन हॉस्टलों में कॉलेज की स्थापना के बाद से इतने सारे महापुरुष लोग रह चुके थे कि कॉलेज एडमिनिस्ट्रेशन को कोई और इनसे बड़ा महापुरुष मिला ही नहीं … तो उन्हें नाम की जगह सिंपल नम्बर प्रयोग करना ही ठीक लगा। हम लोग नए-नए सीनियर्स बने थे और 97 बैच के जूनियर्स 4 नम्बर हॉस्टल में रहने आ चुके थे। कुछ दिनों तक हमारी मेस में ही खाना खाने के बाद अब फर्स्ट ईयर की सेपरेट मेस उन्हीं के हॉस्टल में शुरू हो चुकी थी। हॉस्टल की मेस चलाने के लिए 5 जूनियर्स की एक मेस कमेटी बनी, जिसमे चाऊ, लड्डु, असनानी, बुन्देली, और प्रदीप थे। गल्लू और चीमा मेस सेक्रेटरी बनाए गए थे। इन्हीं का काम था मेस के लिए ग्रॉसरी, सब्जी लाना और कुक/हेल्पर की सैलरी देना। ऑल इन ऑल ये एक थैंकलेस सर्विस जैसा था। मेस चला और गाली खा, यह हरेक हॉस्टल के मेस की कहा